इस लेख में हम छायावाद प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के बारे में , उनकी विशेषताएं और उनके प्रमुख कवियों के बारे में जानेंगे जिससे आपको तीनों के बारे में जानकारी प्राप्त हो।
1- छायावाद (1918 से 1936)
छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की व्याख्या इस प्रकार की हैं
" छायावाद कविता वाणी का वह लावण्य है जो स्वयं मे मोती के पानी जैसी छाया, तरलता और युवती के लज्जा भूषण जैसी श्री से संयुक्त होता है। यह तरल छाया और लज्जा श्री ही छायावाद कवि की वाणी का सौंदर्य है।"
छायावाद हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही।
छायावाद हिन्दी साहित्य के आधुनिक चरण मे द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वच्छंद प्रेमभावना, पकृति मे मानवीय क्रिया कलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना-पद्धति को लेकर चली, उसे छायावाद कहा गया।
मुख्य विशेषताएं
· नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण
· प्रकृति प्रेम
· राष्ट्रीय / सांस्कृतिक जागरण
· रहस्यवाद
· स्वच्छन्दतावाद
· कल्पना की प्रधानता
· दार्शनिकता
छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ
सुमित्रानंदन पंत
जयशंकर प्रसाद महादेवी वर्मा
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' 2- प्रगतिवाद (1936 से 1943)
प्रगतिवाद विशेष रूप से काॅर्ल मार्क्स की साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित है। मार्क्सवादी विचारधार का समर्थक प्रगतिवादी साहित्यकार आर्थिक विषमता को ही वर्तमान दु:ख एवं अशांति का कारण स्वीकार करता है। आर्थिक विषमता के फलस्वरूप समाज दो वर्गो मे बंटा है- पूँजीपति वर्ग अथवा शोषक वर्ग और दूसरा शोषित वर्ग या सर्वहारा वर्ग। प्रगतिवाद अर्थ, अवसर और संसाधनों के समान वितरण द्वारा ही समाज की उन्नति मे विश्वास रखता हैं। सर्वहार या सामान्य जन की प्राण प्रतिष्ठा के साथ श्रम को गरिमा को प्रतिष्ठित करना और साहित्य मे प्रत्येक समाज के सुख-दुख का यर्थाथ चित्रण प्रस्तुत करना ही प्रगतिवाद का लक्ष्य है।
प्रगतिवादी काव्य की समय सीमा 1936 से 1943 तक मानी जाती है| सबसे पहले रूस में 1934 को सोवियत लेखक संघ की स्थापना की गई थी| यह विश्व का सबसे पहला संगठन था| भारत में प्रगतिवादी काव्य का पहले अधिवेशन 1936 में लखनऊ में हुआ था | इसके अध्यक्ष सभापति
प्रेमचंद थे|
प्रगतिवादी काव्य में कवि कविताओं के माध्यम से मानवतावादी को में समानता लाना चाहते थे| वह जाति-पाति, वर्ग-भेद , धर्म से मानव को मुक्त करना चाहते थे| प्रगतिवादी कवि क्रांति में विश्वास रखते थे , वह पूंजीवादी व्यवस्था ,रूढ़ियों तथा शोषण के खिलाफ विद्रोह करते थे|
प्रगतिवादी काव्य की विशेषताएं
· समाजवादी यथार्थवाद/ सामाजिक यथार्थ का चित्रण,
· प्रकृति के प्रति लगाव
· नारी प्रेम
· राष्ट्रीयता
· सांप्रदायिकता का विरोध
· बोधगम्य भाषा (जनता की भाषा में जनता की बातें) व व्यंग्यात्मकता
· मुक्त छंद का प्रयोग (मुक्त छंद का आधार कजरी, लावनी, ठुमरी जैसे लोक गीत)
· मुक्तक काव्य रूप का प्रयोग।
प्रगतिवादी युग के प्रमुख स्तंभ
सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'(विशुद्ध छायावादी)
भगवती चरण वर्मा,
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल',
बच्चन की कुछ कविताएं(हालावादी कवि)
माखन लाल चतुर्वेदी रामधारी सिंह 'दिनकर'
3- प्रयोगवाद(1943 से 1960 ई)
प्रयोगवाद हिन्दी साहित्य की आधुनिकतम विचारधार है। इसका एकमात्र उद्देश्य प्रगतिवाद के जनवादी दृष्टिकोण का विरोध करना है। प्रयोगवाद कवियों ने काव्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों को ही महत्व दिया है। इन्होंने प्रयोग करके नये प्रतीकों, नये उपमानों एवं नवीन बिम्बों का प्रयोग कर काव्य को नवीन छवि प्रदान की है। प्रयोगवादी कवि अपनी मानसिक तुष्टि के लिए कविता की रचना करते थे।
मुख्य विशेषताएं
· नवीन उपमानों का प्रयोग
· प्रेम भावनाओं का खुला चित्रण
· बुद्धिवाद की प्रधानता
· निराशावाद की प्रधानता
· लघुमानव वाद की प्रतिष्ठा
· अहं की प्रधानता
· रूढ़ियों के प्रति विद्रोह
· मुक्त छन्दों का प्रयोग
प्रयोगवाद युग के प्रमुख स्तंभ
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय
धर्मवीर भारती गजानन माधव मुक्तिबोध
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
भारत भूषण अग्रवाल